यूपी में 9 सीटों पर होने वाले उपचुनाव के लिए भाजपा और सपा के प्रत्याशी नामाकंन दाखिल कर चुके , BJP की नई चाल

लखनऊ
यूपी में 9 सीटों पर होने वाले उपचुनाव के लिए भाजपा और सपा के प्रत्याशी नामाकंन दाखिल कर चुके हैं। प्रदेश में इतना तो साफ हो चुका है कि यह लड़ाई अब भाजपा और सपा के बीच ही लड़ी जाएगी। अब राजनीतिक पंडितों का यह भी कहना है कि यह लड़ाई पार्टियों की नहीं बल्कि CM योगी आदित्यनाथ और अखिलेश यादव के स्वाभिमान की लड़ाई है। खैर हम बात करेंगे गठबंधन की उस PDA के बारे में जिसका काट अभी तक भाजपा को नहीं मिला था और उसका खामियाजा लोकसभा के चुनाव में भुगतना पड़ा था। लेकिन अब भाजपा सपा के PDA का मुकाबला करने के लिए तैयार है और इस बार प्रदेश में PDA का सामना अपने PDA से करने वाली है।

इस उपचुनाव में आपको दो PDA नजर आने वाले हैं एक वो गठबधंन का PDA जिसका पूरा नाम है पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक है और दूसरा PDA भाजपा का है। इस का फुल फॉर्म है पिछड़ा, दलित और अगड़ा। भाजपा ने इस PDA का अविष्कार यूं ही हवा में नहीं किया है बल्कि इस फॉर्मुले का परिक्षण हरियाणा के विधानसभा चुनाव में किया और परिणाम आया तो वक्त, हालात, जज्बात सब कुछ एक साथ बदल गया। अब भाजपा अपने इस PDA का इस्तेमाल टिकट बंटवारा हो या देश का कोई भी चुनाव अल्पसंख्यक को छोड़कर पिछड़े, दलित और अगड़ा फर अपना फोकस कर रही है।

उपचुनाम में टिकट का बंटवारा
इस उपचुनाव में सपा और भाजपा ने जिस हिसाब से टिकट का बंटवारा किया है उसी से साफ दिखाई दे रहा है कि किस कदर प्रदेश में PDA बनाम PDA की लड़ाई चल रही है। पहले सपा के प्रत्याशियों को देख लेते हैं। सपा ने कुल नौ प्रत्याशी उतारे हैं। इनमें सबसे ज्यादा चार पर अल्पसंख्यकों को टिकट दिया है। तीन ओबीसी और दो दलित प्रत्याशियों को टिकट दिया है।

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भाजपा ने 4 आबीसी प्रत्याशी इतारे
वहीं, अब भाजपा के प्रत्याशियों को देख लेते हैं कि वह अपने PDA यानि पिछड़ा दलित अगड़ा के आधार पर किस तरह से टिकट दिया गया है। भाजपा ने आठ प्रत्याशियों में सबसे ज्यादा चार ओबीसी को टिकट दिया है। इसके अलावा तीन सवर्ण और एक दलित को प्रत्याशी बनाया है। सहयोगी पार्टी आरएलडी ने ओबीसी को मैदान में उतारा है। इस तरह देखा जाए तो ओबीसी और दलित पर सपा और भाजपा दोनों ने दांव लगाया है। सपा ने अल्पसंख्यकों को महत्व दिया है लेकिन भाजपा को भलीभांति पता है कि अल्पसंख्यक वोटर उसके तरफ कभी नहीं जाएंगे इसलिए BJP ने अल्पसंख्यक की जगह पर अगड़ा यानि सवर्णों को महत्व दिया है।

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क्यों PDA की पड़ी जरूरत
अब सवाल है कि प्रदेश में आखिर PDA बनाम PDA कैसे हो गया… इसकी क्या वजह थी। दरअसल, PDA जो शब्द है वह अपने अंदर एक विशालकाय वोट बैंक को समेटा हुआ है। चलिए इसकी तह में घुसते और जानते हैं कि प्रदेश में पार्टियों को PDA की जरूरत कैसे पड़ गई….

भाजपा ने की सपा के वोट बैंक में सेंधमारी
एक वक्त था जब उत्तर प्रदेश में ओबीसी एक बड़ा वोट बैंक समाजवादी पार्टी का हुआ करता है और जो दलित वोट था वह बसपा का हुआ करता था। लेकिन समय बदला वक्त बदला और आज का दिन देखा जाए तो आलम यह है कि भाजपा ने गैर यादवों को अपनी तरफ करके सपा के ओबीसी वोटबैंक में सेंध लगा दी है। इसी तरह गैर जाटवों को अपनी तरफ करके बसपा के वोटबैंक में सेंध लगाई। इसका लाभ भी भाजपा को मिला।

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PDA के दम पर गठबंधन
अब अपने इन वोटरों को पाने के लिए इंडिया गठंधन ने फिर से पिछले लोकसभा के चुनाव में PDA का नारा बुलंद किया। पिछड़े, दलितों और अल्पसंख्यकों को अपनी ओर करने के लिए PDA का नारा तो दिया ही था, इसके साथ ही सपा ने संविधान और जातीय जनगणना जैसे मुद्दों को उठाया और परिणाम सबके सामने था कि किस कदर लोकसभा में भाजपा की सीटे कम हुई । सपा कांग्रेस दोनों ने 80 में से 43 सीटें जीतीं और भाजपा को भारी नुकसान हुआ।

PDA बनाम PDA
तब से भाजपा को इस बात की चुभन थी कि इंडिया के PDA का कैसे काट निकाले… फिर लोकसभा चुनाव के ठीक बाद हुए हरियाणा विधानसभा चुनाव में भाजपा ने कुछ प्रयोग किया। भाजपा को लगा कि जाट वोटर उससे कुछ नाराज हैं और अल्पसंख्यक I.N.D.I.A. का वोटबैंक है। ऐसे में उसने सबसे ज्यादा पिछड़ों पर फोकस किया और दलितों के साथ ही सवर्णों को साधा। वहां की बड़ी जीत के बाद अब भाजपा यूपी में ओबीसी, दलित और अगड़े प्रत्याशी उतार कर PDA की काट PDA करने की कोशिश की है।

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